क्या अमर होना संभव हैं
दरअसल, इंसान की उत्पत्ति जब से हुई और सोचने-समझने की काबिलियत हासिल की उसी समय से इंसान के मन में अमर होने की लालसा भी जगी जो आजतक जारी हैं।
अभी हम ने सिर्फ पौराणिक कथाओं या जनश्रुतियों में ही अमरता की मनगढ़ंत रोमांचक कहानियां पढ़ी या सुनी थीं। मगर पिछले दिनों एक रूसी वैज्ञानिक अनातोली ब्रौउचकोव किस्सेकहानियों में अटकी इस अमरता को किसी हद तक वास्तविक जीवन तक खींच लाए हैं. लगता है उन्होंने वह नुसखा भी हासिल कर लिया है, जो इंसान को बारबार के जीवनमरण के झंझट से मुक्त कर देगा।
जी हां, हम ऐसी ही वास्तविक अमरता की बात कर रहे हैं, जिसे हासिल करने में दुनिया के तमाम खोजी वैज्ञानिक सदियों से लगे हुए हैं. अनातोली ने अपने इस प्रयोग के लिए जो शुरुआती मानक तय किए थे, वे तकरीबन सही मालूम पड़ रहे हैं।
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जिस प्रयोग की बदौलत यहां अमरता की बात की जा रही है, लगता है उस ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है, क्योंकि अमरता का खुद पर प्रयोग करने वाले वैज्ञानिक पिछले 2 साल में एक बार भी बीमार नहीं पड़े. उन का इम्यून सिस्टम कुछकुछ वैसा ही रिऐक्ट कर रहा है, जैसी उन्होंने कल्पना की थी।इस वैज्ञानिक प्रयोग की यह सफलता इसे अब तक के दूसरे प्रयोगों से अलग और विश्वसनीय बनाती है।
दरअसल, 35 लाख साल पुराने बैक्टीरिया पर प्रयोगशाला में रिसर्च कर रहे रूसी वैज्ञानिक अनातोली ब्रौउचकोव ने सोचा अगर इस बैक्टीरिया को इंसान के शरीर में प्रविष्ट कराया जाए तो हमें शायद यह पता चल सके कि लाखों साल से जिंदा रहने वाला यह बैक्टीरिया इंसान के लिए कितना उपयोगी हो सकता है।
क्या इंसान इस से सुरक्षित होने के बाद दुनिया के किसी भी बैक्टीरिया से सुरक्षित हो जाएगा क्या उस का इम्यून सिस्टम सभी तरह के बैक्टीरिया से लड़ने में सक्षम होगा रूसी वैज्ञानिक के दिलोदिमाग में इंसान के इम्यून सिस्टम को बेजोड़ बनाए जाने की कल्पना को ले कर ऐसी अनगिनत बातें चल रही थीं.
अनातोली ने अपने इस प्रयोग के लिए लोगों को तलाशा पर जब कोई तैयार नहीं हुआ तो उन्होंने खुद पर ही प्रयोग करने की ठानी। यह समझने के लिए कि इस से इंसानी जीवन पर क्या फर्क पड़ता है। यह उन का दावा नहीं एक अनुमान है और यह हर उस इंसान का अनुमान हो सकता है जो उन्हीं की तरह अमरता की तलाश कर रहा हो।
उन का मानना है कि यदि कोई बैक्टीरिया 35 लाख साल से जिंदा है तो क्या वह अपने प्रभाव से इंसान को भी लंबा जीवन प्रदान नहीं कर सकता अभी तक तो उन का अनुमान आशानुकूल है, क्योंकि जब से उन्होंने अपने शरीर में अवैज्ञानिक ढंग से इस तथाकथित बैक्टीरिया का प्रवेश किया है, तब से वे एक बार भी किसी तरह की बीमारी विशेषकर फ्लू तक की चपेट में नहीं आए।
उन का दावा है कि करोड़ों साल से जिंदा यह बैक्टीरिया बेहद शक्तिशाली है। जो मर ही नहीं रहा है. ऐसे में संभव है कि यह मनुष्य को भी अमरता प्रदान करे।
इंगलैंड के अखबार ‘द टैलिग्राफ’ में छपी खबर के मुताबिक, रूसी वैज्ञानिक अनातोली ब्रौउचकोव मास्को विश्वविद्यालय में जियोक्रौयोलौजी डिपार्टमैंट के मुखिया हैं जिन्होंने पिछले लगभग सवा 2 साल से इस करामाती बैक्टीरिया को अपने शरीर में पनाह दी है।तब से वे बिना जिम गए भी बेहद फिट हैं।
इस बैक्टीरिया का नाम बसिलस एफ है। उन्हें यह ध्रुवीय इलाके में मिला। जांचने से मालूम हुआ कि यह बैक्टीरिया 35 लाख साल से जिंदा है। इस बैक्टीरिया पर अनातोली अपनी टीम के साथ काफी समय से काम कर रहे थे। उन के मुताबिक, ‘‘हम ने 2 साल तक इस का प्रयोग चूहों पर किया लेकिन निर्णायक रूप से कुछ समझ नहीं आ रहा था. इसलिए अंतत: मैं ने इसे खुद पर प्रयोग करने की सोची. जब से मैं ने इस का खुद पर प्रयोग किया है तब से मुझे जुकाम तक नहीं हुआ है।
वे कहते हैं, ‘‘हो सकता है हम जो उम्मीद लगाए बैठे हैं वह पूरी न हो, लेकिन मेरा अनुभव यही है कि यह बैक्टीरिया खतरनाक तो नहीं है। ऐसे में अमरता न सही अगर जीवन को यह बैक्टीरिया लंबा भी करता है तो क्या बुराई है ।
अनातोली ने इस बैक्टीरिया को बिना कोई सावधानी बरते सीधे अपने शरीर में इंजैक्ट किया था।
वैसे यह प्रयोग कितना सफल है अनातोली कहते हैं, ‘‘इस का मेरे पास कोई आंकड़ा नहीं है, क्योंकि इसे मैं ने अपने शरीर में किसी आधिकारिक अनुमति से प्रविष्ट नहीं कराया है. इस का कोई रिकौर्ड नहीं है. मगर इस की सफलता की गारंटी मेरा सवा 2 साल तक पूरी तरह से स्वस्थ रहना है।
अमरता के लिए हमेशा से कई वैज्ञानिक खोजों में लगे रहे हैं और अंतत: असफल हो कर शांत बैठ गए. ऐसे में अनातोली ब्रौउचकोव की यह अधूरी खोज किसी अनमोल सपने से कम नहीं लगती।
जैली फिश में भी हैं अमरता का मूल मंत्र हैं, वैज्ञानिक उसपर रिसर्च कर रही हैं।
अमरता के लिए आज तक दुनिया में दोचार नहीं बल्कि करोड़ों प्रयोग व खोजें हो चुकी हैं लेकिन अमरता इंसान के हाथ नहीं लगी ।
कुछ साल पहले ऐसी ही उम्मीद सागर की अतल गहराइयों से पैदा हुई थी. तब भी काफी विश्वास के साथ घोषणा की गई थी कि अमरता की कुंजी मिल गई है. हिंदू माइथोलौजी में भी संजीवनी यानी अमृत की उत्पत्ति, समुद्र से ही होती है. शायद हमारे पुरखों को यह आभास था कि अमरता का मूलमंत्र कहीं न कहीं सागर की गहराइयों में ही छिपा है. कहीं न कहीं आधुनिक विज्ञान भी समुद्र में ही अमरता का मूलतंत्र तलाश रहा है।
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कुछ साल पहले इंसान की अमरता की चाहत की खोज उसे एक समुद्री मछली की ओर ले गई थी जो तकनीकी दृष्टि से कभी नहीं मरती. घोर विपरीत परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर भी वह फिर से जवान और बच्चा होने के उलटे चक्र की ओर चल पड़ती है. यह कोई तिलिस्म नहीं है. यह है अपनी जानीपहचानी जैली फिश. अगर कोई शिकारी इसे खा न ले या फिर यह दुर्घटनावश या बीमारी की चपेट में आ कर अपनी जान न गवां बैठे तो यह अमर है. जैली फिश प्रजाति का वैज्ञानिक नाम है, ट्यूरीटोप्सिस न्यूट्रीकुला, जिसे इम्मार्टल जैली फिश भी कहते हैं. यह प्रजाति जवान होने पर यानी अपने जीवनकाल के मेड्यूसा अवस्था से फिर अपने बाल्यकाल अर्थात पालिप अवस्था को लौटने की अद्भुत क्षमता रखती है. वैज्ञानिकों की भाषा में जैली फिश, जो प्राणी समुदाय के मेटाजोआ श्रेणी की नुमाइंदगी करती है, में रिवर्स एजिंग यानी जीवन के उलटे चक्र की विशेषता पाई जाती है, जिसे ट्रांसडिफरैंसिएशन कहा जाता है.।
रणधीर कुमार झा

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